इस अभ्यास से मिलेगी सुख और समृद्धि
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मनुष्य पहले ही विक्षिप्त है,मन्त्र से विक्षिप्तता टूट भी सकती है और बढ़ भी सकती है।
मन पुराने सब धंधे जारी रख कर,एक नया धंधा और पकड़ ले सकता है।
मन्त्र के साथ धैर्य चाहिए।जैसे दवा को एक निश्चित मात्रा में लेना होता है।दवा की अतिरिक्त खुराक से रोग जल्दी नहीं ठीक होता,अधिकांशतः तो रोग बढ़ जाता है।दवा को मात्रा में ही लेना होता है।
मन्त्र की मात्रा बेहद सूक्ष्म है और बड़े धैर्य की जरूरत है।
फल की जल्दी आकांक्षा न करे मनुष्य,वह परम् फल है;इसलिए जल्दी आएगा भी नहीं।जन्म-2 भी लग सकते हैं।
ये समझ लेने जैसा है कि जितना अधिक धैर्य होगा,फल उतनी ही जल्दी आएगा।अधैर्य होने पर देर ही होगी।
पहली पर्त शरीर है,इसलिए मंत्र का प्रथम प्रयोग शरीर से प्रारम्भ करना जरूरी है।क्योंकि मनुष्य अभी शरीर पर है,इलाज वहीं से शुरू करना होगा।यात्रा का प्रारम्भ,मनुष्य जहां खड़ा है;वहीं से करना उचित है।कहीं और से यात्रा प्रारम्भ करना महज एक स्वप्न है।अभी मन्त्र का प्रारम्भ शरीर से शुरू करना ही उचित है।
एकांत में किसी भी एकदम खाली कमरे में सुखासन में बैठ जाए मनुष्य,ध्यान रहे शरीर को कष्ट नहीं देना है।पूरी आराम की व्यवस्था कर लें।
फिर जोर-2 से -ॐ,ॐ ;जितने जोर से कर सके,क्योंकि शरीर का उपयोग करना है।पूरा शरीर निमज्जित हो जाए ॐ में,सम्पूर्ण जीवन ऊर्जा ॐ में लगा देना है।जैसे इसी पर जीवन -मरण टिका हुआ है।
अपने को पूरा दांव पर लगा देना है!जैसे सिंहनाद होने लगे।
इतनी जल्दी-2 ॐ कहना है कि दो ॐ के मध्य जगह न रहे।सारी शक्ति लगा देनी है।
थोड़े ही दिनों पश्चात मनुष्य पायेगा कि पूरा कमरा ॐ से भर गया है।
तीसरे चरण में मन में भी ॐ का गुंजार बंद कर देना है।
अब मनुष्य को सुनने का प्रयास करना है,जैसे ओंकार गूँज ही रहा हो;मनुष्य को केवल सुनना है,गुंजार करना नहीं है।
मन के बाहर मनुष्य तभी जा सकेगा ,जब कर्ता छूट जाये;मनुष्य अब केवल द्रष्टा हो जावे।
मनुष्य ने यदि सुनने का प्रयास जारी रखा ,तो वह आश्चर्यचकित रह जाएगा कि भीतर सूक्ष्म उच्चार चल ही रहा है;और वह ॐ का ही उच्चार है।
मनुष्य शांत होकर सुनेगा तो वह सुनाई अवश्य देगा।
प्रथम चरण ने मनुष्य को शरीर से मुक्त कर दिया,दुसरे कदम ने मन को समाप्त कर दिया;तीसरा कदम साक्षित्व का है।
इसीलिये ॐ से अदभुत दूसरा और कोई मंत्र नहीं है।
दुसरे मन्त्र इतनी सरलता से मन के बाहर न ले जा सकेंगे।ॐ अनूठा है।ये भीतर सतत चल रहा है,और ये मनुष्य-जीवन का स्वभाव है।इसे करना नहीं पड़ता,मनुष्य के होने के ढंग में ही ॐ गूँज रहा है;ये मनुष्य के होने की ध्वनि है-The sound of human being.
इसीलिये ॐ किसी भी सम्प्रदाय का नहीं है।
तो चरणों में मनुष्य गुंजार करेगा,तीसरे में गुंजार को सुनेगा;साक्षी बनेगा।
दो तक कर्ता रहेगा,क्योंकि शरीर और मन कर्तृत्व का अंग हैं।तीसरा चरण साक्षित्व का है।
शरीर से हटे,
मन समाप्त हुआ;
अब केवल शुद्ध अस्तित्व शेष रह गया।
एक बार ये स्वाद मिल गया,फिर स्वाद स्वयमेव खींच लेगा;स्वाद सब सहज बना देता है।स्वाद मिल पाना ही सबसे कठिन है।
परम पूज्य गुरु जी श्री पुरुषोत्तम रामानुजाचार्य जी महाराज