मनोवैज्ञानिक तरीकों से रोके जा सकते हैं बाल अपराध

17 Mar 2017 19:13:47 PM

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भारतीय समाज में बाल अपराध की दर दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इसका कारण है कि वर्तमान समय में नगरीकरण तथा औद्योगिकरण की प्रक्रिया ने एक ऐसे वातावरण का सृजन किया है जिसमें अधिकांश परिवार बच्चों पर नियंत्रण रखने में असफल सिद्ध हो रहे हैं। वैयक्तिक स्वतंत्रता में वृद्धि के कारण नैतिक मूल्य बिखरने लगे हैं, इसके साथ ही अत्यधिक प्रतिस्पर्धा ने बालकों में विचलन को पैदा किया है। कम्प्यूटर और इंटरनेट की उपलब्धता ने इन्हें समाज से अलग कर दिया है। फलस्वरूप वे अवसाद के शिकार होकर अपराधों में लिप्त हो रहे हैं।

जब किसी बच्चे द्वारा कोई कानून-विरोधी या समाज विरोधी कार्य किया जाता है तो उसे किशोर अपराध या बाल अपराध कहते हैं। कानूनी दृष्टिकोण से बाल अपराध 8 वर्ष से अधिक तथा 16 वर्ष से कम आयु के बालक द्वारा किया गया कानूनी विरोधी कार्य है जिसे कानूनी कार्यवाही के लिये बाल न्यायालय के समक्ष उपस्थित किया जाता है। बाल अपराध में बालकों के असामाजिक व्यवहारों को लिया जाता है अथवा बालकों के ऐसे व्यवहार का जो लोक कल्याण की दृष्टि से अहितकर होते हैं, ऐसे कार्यों को करने वाला बाल अपराधी कहलाता है।

समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से बाल अपराध के लिये आयु को अधिक महत्व नहीं दिया जाता क्योंकि व्यक्ति की मानसिक एवं सामाजिक परिपक्वता सदा ही आयु से प्रभावित नहीं होती। अत: कुछ विद्वान, बालक द्वारा प्रकट व्यवहार, प्रवृति को बाल अपराध के लिए आधार मानते हैं। जैसे आवारागर्दी करना, स्कूल से अनुपस्थित रहना, माता-पिता एवं संरक्षकों की आज्ञा न मानना, अश्लील भाषा का प्रयोग करना, चरित्रहीन व्यक्तियों से संपर्क रखना आदि। किन्तु जब तक कोई वैध तरीका सर्वसम्मति से स्वीकार नहीं कर लिया जाता तब तक आयु को ही बाल अपराध का निर्धारक आधार माना जायेगा। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से एक बाल अपराधी वह व्यक्ति है जिसके व्यवहार को समाज अपने लिए हानिकारक समझता है और इसलिए वह उसके द्वारा निषिद्ध होता है।

किशोरावस्था में व्यक्तित्व के निर्माण तथा व्यवहार के निर्धारण में वातावरण का बहुत हाथ होता है; अत: अपने उचित या अनुचित व्यवहार के लिये किशोर बालक स्वयं नहीं वरन उसका वातावरण उत्तरदायी होता है। इस कारण अनेक देशों में किशोर अपराधों का अलग न्यायविधान है। उनके न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधिकारी बाल मनोविज्ञान के जानकार होते हैं। वहां बाल-अपराधियों को दंड नहीं दिया जाता, बल्कि उनके जीवनवृत्त के आधार पर उनका तथा उनके वातावरण का अध्ययन करके वातावरण में स्थित अपराधों को जन्म देने वाले तत्वों में सुधार करके बच्चों के सुधार का प्रयत्न किया जाता है। अपराधी बच्चों के प्रति सहानुभूति, प्रेम, दया और संवेदना का व्यवहार किया जाता है।

सम्पूर्ण भारत के लिए सन 1876 में सुधारालय स्कूल अधिनियम बना जिसमें 1897 में संशोधन किया गया था। यह अधिनियम भारत के अन्य स्थानों पर 15 एवं बम्बई में 16 वर्ष के बच्चों पर लागू होता था। इस कानून में बाल-अपराधियों को औद्योगिक प्रशिक्षण देने की बात भी कही गयी थी। अखिल भारतीय स्तर के स्थान पर अलग-अलग प्रान्तों में बाल अधिनियम बने। सन 1920 में मद्रास, बंगाल, बम्बई, दिल्ली, पंजाब में एवं 1949 में उत्तर प्रदेश में और 1970 में राजस्थान में बाल अधिनियम बने। बाल अधिनियमों में समाज विरोधी व्यवहार व्यक्त करने वाले बालकों को प्रशिक्षण देने तथा कुप्रभाव से बचाने के प्रयास किये गए, उनके लिये दण्ड के स्थान पर सुधार को स्वीकार किया गया।

हमारे देश से बच्चों द्वारा किए जाने वाले अपराधों पर नियन्त्रण के लिए विशेष न्यायिक व्यवस्था सुनिश्चित करने हेतु संवैधानिक व्यवस्थाओं के साथ किशोर न्याय अधिनियम 1986 यथा संशोधित 2000 प्रचलन में हैं। उच्च न्यायालय ने अपने दिसम्बर 1996 के बाल श्रम से सम्बन्धित निर्णय में बालश्रम के लिए गरीबी को उत्तरदायी मानते हुए कहा कि जब तक परिवार के लिए आय की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो पाती, तब तक बालश्रम से निजात पाना मुश्किल है। हालांकि सरकार के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 45 के तहत 2003 में 93वें संविधान संशोधन को पास कर दिया गया है जिसमें श्रम के घण्टे कम कर बच्चों को बालश्रम से मुक्ति व पुनर्वास के लिए विशेष विद्यालय एवं पुनर्वास केन्द्रों की व्यवस्था की गई है। जहां रोजगार से हटाए गये बच्चों को अनौपचारिक शिक्षा, व्यवसायिक प्रशिक्षण, अनुपूरक पोषाहार आदि की व्यवस्था की गई है। सरकारी प्रयासों के अलावा बाल अपराध को रोकने के लिए मनोवैज्ञानिक तरीकों को अपनाकर भी इस समस्या से निजात पायी जा सकती है। 

इस समय भारत के सभी राज्यों में बाल न्यायालय हैं। बाल न्यायालय में एक प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट, अपराधी बालक, माता-पिता, प्रोबेशन अधिकारी, साधारण पोशाक में पुलिस उपस्थित रहते हैं। बाल न्यायालय का वातावरण इस प्रकार का होता है कि बच्चे के मष्तिष्क में कोर्ट का आतंक दूर हो जाए। ज्यों ही कोई बालक अपराध करता है तो पहले उसे रिमाण्ड क्षेत्र में भेजा जाता है और 24 घंटे के भीतर उसे बाल न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। उसकी सुनवाई के समय उस व्यक्ति को भी बुलाया जाता है जिसके प्रति बालक ने अपराध किया। सुनवाई के बाद अपराधी बालकों को चेतवनी देकर, जुर्माना करके या माता-पिता से बॉण्ड भरवा कर उन्हें सौंप दिया जाता है अथवा उन्हें परिवीक्षा पर छोड़ दिया जाता है या किसी सुधार संस्था, मान्यता प्राप्त विद्यालय परिवीक्षा हॉस्टल में रख दिया जाता है।

भारत में जुर्म में संलिप्त नाबालिगों की संख्या में निरंतर हो रही बढ़ोतरी के कारण किशोर न्याय अधिनियम में बदलाव पर विचार किया गया। भारत में साल 2012 में जहां 27 हजार 936 किशोर आपराधिक गतिविधियों में शामिल थे वहीं साल 2013 में ये संख्या बढ़कर 31 हजार 725 तक पहुंच गई और 2014 में यह आंकड़ा 33 हजार 526 तक जा पहुंचा। भारत की राजधानी दिल्ली में दिसम्बर 2012 को हुए निर्भया बलात्कार कांड के बाद देश में अपराधिक मामलों में नाबालिगों की आयु को लेकर खासा विवाद उत्पन्न हुआ था। इसके पीछे मुख्य कारण इस घिनौने और निर्मम हत्याकांड को अंजाम देने वाले मुख्य आरोपी का नाबालिग होना था। भारत में इस सन्दर्भ में नाबालिग आयु 18 से घटाकर 14 वर्ष करने की पुरजोर मांग हुई थी जिससे जघन्य अपराधों में संलिप्त नाबालिगों पर वयस्क कानून के अंतर्गत सजा हो सके। देश भर में लंबे धरने और प्रदर्शनों के दौर के बाद देश की संसद में लंबित पड़ा किशोर न्याय बिल अंतत: पास कर दिया गया और नाबालिग आयु को पुन: परिभाषित कर 16 वर्ष कर दिया गया। भारत में 15 जनवरी, 2016 से नया किशोर न्याय अधिनियम 2015 देश में लागू हो गया है।

विभिन्न देशों की भांति भारत में भी बाल अपराधियों को सुधारने के लिये प्रयास किये गये हैं और बाल अपराध की पुनरावृत्ति में कमी आयी है फिर भी इन उपायों में अभी कुछ कमियां हैं जिन्हें दूर करना आवश्यक है। बालक अपराध की ओर प्रवेश नहीं करे, इसके लिए आवश्यक है कि बालकों को स्वस्थ मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराये जाएं, अश्लील साहित्य एवं दोषपूर्ण चलचित्रों पर रोक लगायी जाए, बिगड़े हुए बच्चे को सुधारने में माता-पिता की मदद करने हेतु बाल सलाहकार केन्द्र गठित किये जायें तथा सम्बन्धित कार्मिकों को उचित प्रशिक्षण दिया जाए। बाल अपराध की रोकथाम के लिए सरकारी एजेन्सियों, शैक्षिक संस्थाओं, पुलिस, न्यायपालिका, सामाजिक कार्यकताओं तथा स्वैच्छिक संगठनों के बीच तालमेल की आवश्यकता है।

                                                                                                            kalpana tripathi
 

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