परहित व परसेवा ईश्वरीय कार्य
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ईश्वर ने मनुष्य को परहित परसेवा के निमित्त बनाया है।परहित और परसेवा मनुष्य जीवन की एक ऐसी अद्भुत धरोहर होती है जिससे मनुष्य अपना जीवन धन्य करके मुख्य लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।कहा भी गया है कि-ष्परहित सरिस धर्म नहि भाई परपीड़ा सम नहि दुखदायी परहित व परसेवा ईश्वरीय कार्य माना जाता है और यह भी ईश्वर की एक प्रकार से पूजा अर्चना होती है।परहित व परसेवा करने वाले मनुष्य का हित और सेवा खुद ईश्वर करता है।इसलिए कहा गया है कि जो ईश्वरीय कार्यों को करता है उसके कार्यों को ईश्वर स्वयं करता है और उसका कोई भी कार्य असफल नहीं होता है।अपना हित और अपनी सेवा तो पशु पक्षी भी कर लेते हैं अगर यहीं कार्य मनुष्य करने लगता है तो वह इंसान से नरपशु बन जाता है।परहित व परसेवा मनुष्य का स्वाभाविक गुण व धर्म होता है।आजकल मनुष्य परहित व परसेवा से दूर होकर अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति में अपना सारा जीवन व्यतीत करने लगा है।मनुष्य सोचता है कि जितना समय परहित व परसेवा में खर्च कर दूंगा उतने ही समय में हम अच्छा भला धन कमा लेंगे जो हमारे काम आयेगा। मनुष्य यह भूलता है कि परहित परसेवा करने से समय का दुरुपयोग होता है असलियत तो यह है कि समय की बर्बादी तब होती है जबकि मनुष्य अपना सारा जीवन अपने हित व अपनी सेवा में लगा लेता है।परहित व परसेवा करने से मनुष्य जीवन में निखार आता है तथा ईश्वरीय श्रद्धा आस्था व भक्ति बढ़ती है।हमारे सामने ऐसे तमाम लोगों के उदाहरण हैं जिन्होंने अपना सारा जीवन ही परहित व परसेवा में न्यौछावर कर दिया और आज भी लोग श्रद्धा से उनकी याद करते हैं।परहित परसेवा वहीं मनुष्य करता है जो अपने को सबसे छोटा और ईश्वर को सबसे बड़ा मानता है।परहित परसेवा उसी की जाती है जो असहाय होता है और असहाय जब सेवा से खुश होकर दुआए देने लगता है तो मनुष्य जीवन के सारे पाप दूर हो जाते है।
हेमलता त्रिपाठी, समाजसेविका