आधुनिकता का पर्याय कपड़े नहीं !!
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किस तरह हम अपने सोच और कर्मों से अधिक कपड़ों
से अपना परिचय देने लगे। कपडे तो आवश्यक हैं ही , अच्छी वेशभूषा का महत्व भी कम नहीं , लेकिन आ
ज जिस तरहसब आकर ‘ कपड़ा केंद्रित’ हो गया
! हर दिन फैशन की अंधी दौड़ ने हमारे दिमाग और विवेक को जिस तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया है इस
का ख़ासा परिणाम मेट्रोसिटीज में तो दिखता ही है, नक़ल की होड़ गांव तक पहुँच गयी। हर उम्र का व्य
क्ति बेहतर से बेहतर , ब्रांडेड कपड़ों की चलती फिरती दुकान हो गया है। हमाराव्यक्तित्व क्या है , हमारे
कर्म क्या हैं ! हमारी सोच कैसी है , हमारी मर्यादाएं एवं संस्कृति क्या है ! हमारी बुनियाद क्या है ! इन सब
को पर धकेलते हुए , हम पहने हुएक्या हैं, इस पल का फ़ैशन क्या है ! सारा ध्यान इसी पर है आजकल! फै
शन इंडस्ट्री वालों की चांदी और ऐश उड़ाते बच्चों की दिन प्रतिदिन बदलते फैशन के कारण बढ़तीहुई मांगों
से मां- बाप के पैसों की व्यर्थ बर्बादी !
हम हर दिन फ़ैशन के नए ढब , नए अंदाज़ में स्टाइलिश नहीं तो हम तो ज़माने के साथ ही नहीं। इस ' फै
शन परेड में नित नूतन परिधान , दिखावे पर पूरे ध्यान " नेबहुत कुछ मौलिक छीन लिया है , सादा जीवन
था ,थे उच्च विचार , गाँधी जी को तो सिर्फ़, एक खादी से था प्यार ,
और आज के युवा फैशन करने के लिए हर ग़लतकाम करने को हैं तैयार। गांधी जी से अधिक दूरद्रष्टा और
आधुनिक कौन है जिन्होंने इतना त्यागमयी , संयमी जीवन जिया , सिर्फ़ मुंह से बोला नहीं, बल्कि किया।
क्योंहम चमकीले आवरण और रैपर के पीछे दौड़ रहे हैं , क्यों अच्छी आदतों से मुंह मोड़ कर अपनी ज़िंदगी
में भ्रम और दुष्परिणामों से नाता जोड़ रहे हैं !
आजकल हम पर इस क़दर हावी है फैशन, कि हम कोई भी ड्रेस पहनने से पहले एक बार भी ये नहीं सोचते
कि हम उस ड्रेस के अनुकूल हैं भी या नहीं ! कितना अभद्र भीदिखाई पड़ता है कभी ड्रेसिंग !
क्यों नहीं हम अपनी शारीरिक फिटनेस पर ध्यान नहीं देते ! क्यों नहीं अपनी खान-
पान की आदतें भी सुधारते! क्यों नहीं एक्सरसाइजकरते नियमित ! क्यों नहीं फ़ास्ट फ़ूड -
जंक फ़ूड को अपनी ज़िंदगी से बाहर कर देते ! क्यों नहीं हरी सब्जियां और सलाद ,स्प्राउट्स को प्राथमिक
ता देते हम !
सबसे बड़ीबात आधुनिक हो सोच , ज्ञान और संस्कारों के विकास में हो होड़, तो कुछ परिदृश्य स्वर्णिम भवि
ष्य की पदचाप सुनाये, वर्ना तो इस दौड़ से न अपना भला न समाज काये बात इन विवेक हीन, नकलचि
यों को कौन समझाए !
सोच हो अपनी बुनियादों को मज़बूत करने की , संस्कृति और संभ्यता, के अनुरक्षण की , हमारा श्रेष्ठ ,
दिशा निर्देशक ,चैतन्य साहित्य के पठन , पाठन और शिक्षाएंग्रहण करने की। समाज हित -
देश हित में अग्रगामी बनने की , अपनी धरोहरों , अपने पर्यावरण , जीवन को सार्थक व सही दिशा देने वा
ले अपने संस्कारों, जीवनमूल्यों को संरक्षित करने एवं उन्हें आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करने की।
सोच हो अपने और सब अपनों के, न सिर्फ आर्थिक बल्कि आध्यात्मिक, नैतिक , आत्मिक विकास की।
सोच हो परहित कि न सिर्फ़ स्वहित की। सोच हो अपनी मर्यादाओं , रिश्तों-
नातों , नारी जाति के सम्मान की , सोच हो ऊपर लिखी हुई इन सभीसोचों को क्रियान्वित करने हेतु प्रथम
पहल की, इंसानियत को मुकम्मल कर जाने की। ईमानदारी से अपने कर्त्तव्य और भूमिकाएं
निभाने की। तभी सही अर्थों मेंआधुनिक बनेंगें।
अनुपमा श्रीवास्तव
साहित्यकार, कवयित्री , एंकर, समाजसेवी