' ठोको ' सोच समझकर !
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भाषाई व्याभिचार, अभद्र, अशिष्ट शब्दों के अतिक्रमण से , भाषा की अस्मिता के साथ दुर्व्यवहार। आजकल हर जगह , हर मंच पर , हर जगह भाषा की गरिमा , उत्कृष्टता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है और बताया जाता है कि हम "ज़रा हट कर "हैँ ! जरा हटकर के फंडे को अपनाने वाले लोग समझते हैं कि हम इस प्रतिद्वंदिता के युग में तभी टिक सकते हैं, जब हम कुछ हटकर करें और ऐसे- ऐसे शब्दों का , असंगत भाषा, चलताऊ शब्दावली का उपयोग करते हैं, अपनी बोलचाल में, लेखन में, विभिन्न मंचों से कि सुनकर बड़ा अफसोस होता है। पहले भाषा उसकी गरिमा, उत्कृष्टता को बनाये रखते हुए , उसकी गंभीरता और उसके संप्रेषण की उपयोगिता और जिम्मेदारी समझते हुए पहले संचार माध्यमों में रेडियो , दूरदर्शन उच्च स्तरीय भाषा का प्रयोग होता था। अभी भी इस बात का धयान रखा जाता है लेकिन जबसे प्राइवेट एफ , एम शुरू हुए हैं उनके आर जे को सुनिये किस तरह भाषायी व्यभिचार करते हैं। हद दर्ज़े चलताऊ भाषा , अशिष्ट , अभद्र बोलचाल एवं 'लवगुरु ‘भी बने हुए होते हैं जो विभिन्न संकेतो, तरीकों से , खुद के नए-नए अटपटे शब्दों से , उटपटांग बोलचाल करते हुए लव प्रॉब्लम्स के उपदेशक बने हुए हैं। और इनको सुनकर हमारी भली मानस जनता इसको ही ‘आधुनिक ‘समझ कर चलन में शामिल कर लेती है और इन्हें भाषा की अस्मिता से खिलवाड़ करने में गर्व भी महसूस होने लगता है।
समाज के प्रति सभी वर्गों , सभी वय के व्यक्तियों के प्रति जिम्मेदाराना व्यवहार इसका होगा और उसी उच्चता को प्रतिस्थापित करने के लिए ही बहुत सोच समझकर गंभीरता के साथ ही स्क्रिप्ट, संदेश, प्रोग्राम रचे जाते थे आज व्हाट्सएप्प , फेसबुक-ट्विटर आ जाने से किसी को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इतना नाजायज फायदा उठाया जा रहा है कि हर व्यक्ति दो शब्द लिखकर लेखक बन रहा है और दिन में दस से पच्चीस मैसेज खुद बनाकर या फॉरवर्ड करके उपदेशक बना जा रहा है वस्तुतः चिंतनीय यह है कि इतनी अच्छी अच्छी बातों का जो प्रचार-प्रसार हो रहा है तो क्या वास्तविकता में समाज में , व्यक्ति की मानसिकता , रहन -सहन में सकारात्मक बदलाव आ रहा है या फिर दीया तले अंधेरा और पर उपदेश कुशल बहुतेरे हो रहा है एक प्रोग्राम आता है सिद्धू जिसमें 'ठोको ' बोलते हैं क्या ? तालियां ! लेकिन आजकल तो निरंतर हर जगह , हर कहीं, हर मंच से कुछ इस तरह अभद्र भाषा, असंगत शब्दावली ' ठोकी ' जा रही है कि लोग शुद्ध भाषा , परिष्कृत बोली भूल कर कुछ भी 'ठोके 'जा रहे हैं समय की कमी , अज्ञानता, गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार, 'सब चलता है ' एट्टीट्यूड , और हट कर ' करने की सोच,, संछिप्त शब्दों , प्रतीकों , संकेतों से बनी नूतन शब्दावली यह सब खिलवाड़ करवा रही है।क्या इन संचार माध्यमों की , मंचों की व्यक्तिगत एवं सामाजिक रूप में कोई ज़िम्मेदारी नहीं !
अभिव्यक्ति की पोशाक है भाषा, जिसकी अस्मिता आजकल छिन्न -भिन्न , तार -तार की जा रही है जैसे अभिव्यक्ति का अधिकार सबको मिला है तो अब 'बन्दर के हाथ में भी उस्तरा' आ गया है ! इतने संदेशों की बाढ़ लगी हुई है लेकिन कितने सार्थक, कितने संप्रेषणीय, कितने उपयोगी !! कितना समय हमारा युवा वर्ग सोशल मीडिया पर इन संदेशों को बनाने , कॉपी पेस्ट करने, फॉरवर्ड करने में लगाता है इस पर भी सचमुच एक चिंतन विमर्श की जरूरत है कभी लगता है कि युवा वर्ग जो है वह सोशल मीडिया को चला रहे हैं, अधेड़ और बुजुर्ग देश चला रहे हैं। इतनी सारी ऊर्जा डिजिटल इंडिया के इस रूप को चलाने में जा रही है यह भी एक सवाल है ! सोशल मीडिया का महत्व तो है लेकिन अनावश्यक संदेश, व्यर्थ प्रचार प्रसार, आत्म प्रचार, व्यर्थ प्रपंच, वार्तालाप , कहाँ की समझ है ! डिजिटल इंडिया का कौन सा रूप दिखा रहे हैं, यह सचमुच सोचनीय है ! चिंतन का विषय है। भाषा की गरिमा पर, उसकी अस्मिता पर जो अतिक्रमण किया जा रहा है , इतनी असंगत और अभद्र, अश्लील भाषा का प्रयोग भी किया जा रहा है वह तो सचमुच में चिंतनीय है। भाषा की अपनी गरिमा है, अपना महत्व है। शब्द ब्रह्म है। एक-एक शब्द का महत्व होता है। ' हम हैं हट कर ' का गैर ज़रूरी फंड अपना कर हम इतना भी न हट जाये कि अपनी संस्कृति , भाषा और उसकी उत्कृष्टता को दांव पर लगा पर कटे पंछी बन जाये ! यह बाज़ारू , चलताऊ भाषा क्यों और क्या सिखा रही है ! किस तरह से अभद्रता, अशिष्टता फैला रही है , क्या यह सचमुच में किसी को दिखाई नहीं पड़ रहा !
अगर हम इसी तरह का गैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार करते रहे , सस्ती , चलताऊ शब्दावलियाँ गढ़ते रहे , भाषा की अस्मिता से खिलवाड़ कर भाषायी और मानसिक व्यभिचार करते रहे, हमारी नई जनरेशन क्या सीखेगी इन सबसे , कितना आगे ले जा पायेगी अपनी भाषा , संस्कृति , सभ्यता ये यक्ष प्रश्न है।
अनुपमा श्रीवास्तव ' अनुश्री '
साहित्यकार , एंकर, कवयित्री