"तलाश आदमी की"
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"तलाश आदमी की"
"न थकीं सदियाँ, न आदमी
चलते-चलते
एक दूसरे के साथ
क्षितिज से आसमान तक
पत्तों से रेशमी पोशाक तक की
यात्रा में
क़दम से क़दम मिलाती सभ्यता।
साहित्य, संगीत और कला के
विकास का बढ़ता क्रम;
तक्षशिला और नालन्दा की
अनुपम ज्ञान परम्परा
खजुराहों का शिल्प
और कोणार्क का कौतुक
विदेशियों को बुलाता
ताजमहल;
इन सबके पीछे आदमी ही तो है
पर समझ नहीं आता
आदमी है कहाँ ?
हाथ, पैर, मुँह, नाक
कान, ऑंख ये तो
आदमी नहीं हैं
फिर क्या सिर या पेट आदमी है ?
इतना बड़ा समाज बनाने वाला
आदमी आज समाज से
स्वयं गायब है
ढूँढ रहा हूँ
एक अदद आदमी
वह कहाँ मिलेगा ?
स्कूलों में, कारखानों में
खेतों में या बाज़ारों में,
नहीं,
वहाँ तो विद्यार्थी, अधिकारी
कर्मचारी मिलते हैं;
सामान मिलता है,
या फिर उगती हैं फ़सलें,
आदमी पैदा नहीं होता
आदमी बनता है
संवेदना की भट्ठी में
सिंकता है
अंदर ही अंदर पकता है
तब आदमी बनता है;
ढूँढ रहा हूँ ऐसा आदमी
जो आदमी के लिए
जीता है।"
अपने एक अनुज की पीड़ा देख कर कुछ साझा करने का मन हुआ जिसे मैं कुछ अन्तराल बाद रखना चाहता था। उ. प्र.; बिहार को जातिवाद के दावानल में जलने की बात से कम से कम मैं तो सहमत नहीं हूँ। आज जो सर्वाधिक पीड़ित और अपने अस्तित्व के युद्ध में संघर्षरत है उसे अपनी न तो जाति से मतलब और न ही आपकी। लेकिन जाति और सम्प्रदाय के नाम पर वही छला और इस्तेमाल किया जा रहा है फिर भी उसकी अपनी स्थिति ज्यों की त्यों है। इस पर भी उसका किसी से गिला नहीं; वह अपनी रोजी-रोटी में संघर्षरत अन्य कुछ सम्पन्न व्यक्तियों को दूसरी धरा का मान इस भय में जिए जा रहा है कि उसका कोई इस्तेमाल करने तो नहीं आया? परन्तु फिर भी कुछ चंद अक्षर पढ़-लिख जाति-मजहब की राजनीति करने वालों की स्वार्थ की बलिबेदी पर वह हर रोज काल कवलित हो रहा है और इस दोहन को रोकने के लिए क्या सचमुच फिर किसी अवतार की आवश्यकता है?